ब्यूरो रिपोर्ट-सुरेश सिंह
प्रयागराज : जनपद में सदर तहसील क्षेत्र के टिकरी उपरहार गांव में आज से लगभग 150 साल पुराना अंग्रेजों का नील कारखाना मौजूद हैं, इस नील कारखाने की जीर्ण शीर्ण पड़ी दीवारें आज भी चीख चीखकर अंग्रेजों की घटिया करतूतों को बयां कर रही हैं, सन 1850 से लेकर लगभग 1905 तक यहां नील का उत्पादन निलहे अंग्रेजों द्वारा कराया जाता था, काफी खोजबीन करने के बाद कुछ स्थानीय ग्रामीणों ने बड़े बुजुर्गो से सुनी बातों को टी बी न्यूज़ की टीम से बताते हुए कहा कि आजादी से पहले ब्रिटिश हुकूमत में यह नील की फैक्ट्री चला करती थी यहां के कुछ जमींदारों को मिलाकर अंग्रेजों ने नील की फैक्ट्री लगाई थी जिसमें गरीब मजदूरों और किसानों से जबरन नील का उत्पादन कराया करते थे ।
अंग्रेजों ने तीन कठिया प्रथा चलाकर तीन कठिया कानून बना दिया था जिसके तहत किसानों को नील की खेती करने के लिए मजबूर किया करते थे जो किसान नील की खेती करने मना करते थे उन्हें कई तरह की यातनाएं अंग्रेजों के अधिकारियों कर्मचारियों द्वारा दी जाती थीं, टिकरी उपरहार की इस नील फैक्ट्री से एक भयानक वाक्य जुड़ा हुआ है, गांव के रहने वाले लोक गायक संतोष जी बैरागी बताते हैं कि उन्होंने बुजुर्गों से सुना है कि इस नील फैक्ट्री के ऊपर कुछ दूरी पर अंग्रेजों ने एक दो तीन कमरे की कोठी का निर्माण कराया था जहां नील रखी जाती थी वहीं पर कारखाने का इंचार्ज निलहा अंग्रेज अधिकारी आकर बैठता था आठ दस सिपाही भी उसके साथ रहा करते थे ।
बताते हैं कि उसी समय इस फैक्ट्री पर ऐड मास्ट किलर नाम का एक अंग्रेज अधिकारी आया था जिसे लोग केलर साहब कह कर बुलाते थे बताते हैं कि वह बहुत की क्रूर और अय्याश किस्म का अंग्रेज अधिकारी था, केलर किसानों को आते जाते कोड़ों से पीटता रहता था वह लोगों को फांसी पर लटका देने में मशहूर था रोजाना अगल बगल के गांवों से वह किसी ना किसी महिला या लड़कियों का अपरहण करके कोठी में लाता था और जबरन उनके साथ दुराचार करता था उसकी हरकतों से तंग आकर एक दिन गांव वालों ने उसे उसी कोठी में मारपीट कर जिंदा जला दिया था जब यह खबर पूरामुफ्ती एयरफोर्स गेट के समीप मौजूद थाना के अंग्रेजों को पता चली तो अंग्रेज पुलिस की एक टुकड़ी इसी फैक्ट्री पर आई थी और कई गांव वालों को यहीं पर स्थित एक पेड़ पर दिनदहाड़े फांसी के फंदे पर लटका दिया था जो इस फैक्ट्री से जुड़ी हुई सबसे बड़ी कहानी है ।
नील विद्रोह के बाद यह फैक्ट्री धीरे धीरे करके बंद होती गई क्योंकि किसानों ने नील की खेती करने से इंकार करना शुरू कर दिया था, जिसके बाद आजादी का बिगुल बज गया और अंग्रेज फैक्ट्री को छोड़कर चले गए, इन सब बातों का जिक्र कहीं इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं है लेकिन बड़े बूढ़े उन्हें यही बता कर गए हैं आज यह फैक्ट्री की अवस्था खंडहर में तब्दील हो गई है कोठी का कहीं कोई पता नहीं है वह भी गिरकर ढह गई है लोग फैक्ट्री की जगह की भूमि पर खेती किसानी कर रहे हैं, कुछ बुजुर्ग जानकार बताते हैं कि आजादी के पहले अंग्रेज अफसरों ने गंगा नदी के किनारा क्षेत्रों में कई जगह बड़े पैमाने पर नील की खेती कराते थे वह आस पास के गांवों के लोगों को जबरन पकड़ कर नील कोठी पर लाते और उन्हे नील की खेती के लिए मजबूर किया करते थे विरोध करने पर यातनाएं भी देते थे ।
नील कोठी और नील उत्पादन के लिए बनाए गए नील हौज, अंग्रेज अफसर के बैठका का अवशेष आज भी टिकरी उपरहार, उजिहनी आइमा और आलम चंद्र गांव में मौजूद हैं, ब्रिटिश हुकूमत में गंगा नदी के किनारे स्थित टिकरी उपरहार और उसके आसपास के क्षेत्रों में नील की खेती होती थी, आगे बुजुर्ग लोग बताते हैं कि एक समय में केलर साहब नाम का अंग्रेज अफसर इस नील उत्पादन के कारखाना की देखरेख करने आया था जो बड़ा जुल्मी और जालिम था, आसपास की जमीन पर नील की खेती कराके कारखाना में उसके उत्पादन का कार्य किया जाता था नदी से पानी लाने के लिए नाली बनाई गई थी। नाली से पानी होते हुए एक कुंए में आता था, इसके बाद कुंए से नाली के जरिए नील कारखाने तक पहुंचता था, नील बनाने के लिए जो हौज बनाए गए थे वह जमीन से अधिक उंचाई पर थे ऐसे में हौज तक पानी कुएं से नाली के जरिए पहुंचाया जाता था ।
इतना ही नहीं नील के हौज तक पहुंचने के लिए पश्चिम की तरफ सीढ़ी बनाई गई थी नाली, कुंआ, नील हौज और सीढ़ी अभी भी मौजूद है, कारखाने से सटे एक स्थान पर अंग्रेज अफसर ने अपना बैठका बना रखा था, जहां से कारखाने में चल रहे कार्य की निगरानी करता था, इसके अलावा उन्होंने गांव में एक कोठी बना रखी थी जिसे नील कोठी के रूप में जाना जाता था, कोठी के अवशेष के रूप में उसकी दीवारें अभी भी बची हुई है संतोष जी बैरागी बताते हैं कि अंग्रेज अफसर अपना काम कराने के लिए यहां के लोगों को काफी प्रताड़ित करते थे जो लोग काम करने से मना करते थे अथवा बीमार होते थे उन्हें अपनी कोठी में बुलाकर कोड़े मारते थे ऐसा उनके बड़े बुजुर्ग बताया करते थे, अंग्रेजों द्वारा स्थानीय किसानों से दलहन, तिलहन, अनाज की खेती के बजाए जबदस्ती नील की खेती दो आना, ढाई आना प्रतिदिन मजदूरी देकर कराया जाता था नकद मजदूरी को भी फैक्ट्री के कारिंदे नेग, दस्तूरी नाम से वसूल लेते थे और कभी कभी इन्हें नकद मजदूरी के बदले अनाज दिया जाता था जो किसानों के परिवार के लिए अपर्याप्त था ।
नील की खेती बहुत ही परेशानी और बदबू भरा काम था इस कार्य के लिए गांव के गरीब, दलितों को मजबूर करके खेती कराया जाता था, नील की कोठी में नीलहे अंग्रेज रहते थे जो घोड़ों से आते जाते थे, महिलाओं का अपहरण करके बलात्कार जैसी घटनाओं को अंजाम देते थे इसलिए इस क्षेत्र में महिलाओं का आना जाना वर्जित हो गया था, इस क्षेत्र में अंग्रेजों का अत्याचार इतना बढ़ गया था कि फैक्ट्री में लगे मजदूर अगर थकावट मिटाने के लिए बैठे जाते थे तो अंग्रेज अधिकारी फैक्टरी के पास के पीपल के वृक्ष में उन्हें बांधकर मारते पीटते थे, नील फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों के बच्चों के लिए ना तो कोई स्कूल था और ना कोई दवाखाना बना था, मुट्ठी भर नीलहे अंग्रेज टिकरी उपरहार गांव सहित आसपास के अन्य गांव के निवासियों की सारी खेती, उनका सारा जीवन मकड़ जाल बनाकर बुरी तरह अपनी मुट्ठी में जकड़ लिया था अंग्रेज मजदूरों को भूखे रखकर अपनी झोली भर रहे थे ।
सन 1859 में बंगाल के कृषकों ने नील विद्रोह कर दिया था इसके बाद गठित आयोग ने नील की खेती पर पूर्णता रोक लगा दिया, बावजूद इसके अंग्रेज नील की खेती कराते रहें और 1917- 18 में महात्मा गांधी द्वारा बिहार के चंपारण में नीलहे गोरे किसानों के खिलाफ आंदोलन किया गया था लेकिन प्रयागराज क्षेत्र में इन आंदोलनों का नील की खेती पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और नीलहे गोरे अंग्रेज मनमाने ढंग से स्थानीय लोगों पर अत्याचार करते रहे और नील की खेती कराते रहे, नील कारखाने की जीर्ण शीर्ण पड़ी दीवारें सारी कहानी खुद बयां कर रही हैं टिकरी उपरहार गांव का यह नील कारखाना अंग्रेजों के जुल्मों सितम की एक और गवाही दे रहा है ।
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